الاثنين، 11 مارس 2024

يا شوق / بقلم/ احمدعمر اللحوري

 يا شوق

أي شوق..
اتميت لها..
رادتني..
حينما..
رأيتها..
سبح فكري..
بين خلايا..
ذهنها..
وتبسمت..
حينما..
امطرتها..
شعر...
لحسن..
جمالها..
بارق..
الخير..
يسمعني..
وقلب..
من حرقته..
يتألم...
أين..
عسادات...
روحي...
تطوف..
حول..
خليجات..
أزهارها...
أي قلب..
لها مطيع..
عذابه...
نظراتها..
لعامرية..
فؤادي..
منها..
يستلقاء..
قريحتي..
جمالها..
في جمال..
عينيها..
بغيت..
لاتردو..
من مناسكها...
ضياء...
وغروب..
الشمس...
لها يتحدث..
وا نهر يسكن..
حينما..
تضع قدميها فيه...
امهرتني...
بشوق..
ترتدي..
دمعة..
عيني..
فرح..
اقصدت..
بنشيد..
النواحي..
زفره..
من صدري...
كيف غصن..
من البان..
لأزهارك..
يصيرو...
يتطايرو..
ردمتني..
وهي حكيمة..
لاتناجي..
من رأى..
شاديها..
يطلق..
ك عصفور..
ينشدو..
طرب..
كلما..
رايته..
تماثل..
للشفاء..
مبتسم...
كيف..
لك يالليل..
لا تراعي...
ما أصابني..
من جرح..
هجرانه..
قلادات..
في معصمي..
ك قيد اصطادتني به...
لا ياحسينات...
عمري..
متي المرادو...
يكون..
واللقاء..
نراه..
يقرب..
لقلب..
باح..
دنيانه..
فويل..
لمن لا يراعي..
قلب عاشق..
وهب نفسه..
وهو داري..
سبحان ربي...
خلق جمال..
لخلقه الجميل..
ك جناح لفراشة..
تغازل عينيه..
أن أتاني..
في سراب..
ك حلم..
قبل منامي..
تهت وتاه بي..
بين أغصان ..
الورود
قطفته..
بعاليته..
من مزاجير..
وجداني..
رماني..
وخريت..
له
اتبعه..
إلى مجرى..
به نرتاده..
وقف ووقفت..
خلفه..
أراقبه..
لعله يتذكر..
شدياني..
نظر إليه..
بهمسة..
ادرتني مجبر..
أو حدثها..
قالت ..
راح عمر..
ولم نلتقي..
والعقل..
به ينطق..
وما شوقك..
إليه..
من بعد..
مافات من..
العمر زهيا..
قلت لها...
قلبي دليلي..
لم تفارقه...
عيناك الجميلة..
من راها...
لاينساها ..
مدى حياته...
له سقمات..
ولكم مني..
حفظ..
عذاب فراقي..
قضينا..
من وهل العمري...
والان نشارف..
في عقدنا الثالث..
نبظات القلب...
لازالت حيه...
قربت وتامنت..
وكان الحظن عنوان..
افراغات...
الهجرو...
احمدعمر اللحوري
المكلا حضرموت


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